
(सलीम रज़ा पत्रकार)
उत्तराखंड की राजनीति में महेंद्र भट्ट का दोबारा भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष पद पर चुना जाना केवल एक संगठनात्मक घोषणा नहीं, बल्कि इसके पीछे अनेक राजनीतिक संकेत, समीकरण और संभावनाएँ छिपी हैं। एक ओर यह फैसला निरंतरता और अनुभव को प्राथमिकता देने का उदाहरण प्रतीत होता है, तो दूसरी ओर इसे संभावित राजनीतिक अस्थिरता और भीतर से उभरते गुटबाज़ी के दबावों को संभालने की रणनीति भी माना जा रहा है।
भाजपा ने महेंद्र भट्ट को बिना किसी आंतरिक मुकाबले या विरोध के दोबारा अध्यक्ष नियुक्त किया है, जिससे स्पष्ट होता है कि या तो पार्टी में उनके नेतृत्व को लेकर सर्वसम्मति थी, या फिर यह निर्णय ऊपर से थोपे गए फैसले जैसा है, जिस पर कोई चर्चा या विकल्प नहीं रखा गया। यह लोकतांत्रिक संगठनात्मक प्रक्रिया का पहलू भी है और राजनीतिक व्यवहारिकता का भी। भाजपा जैसी अनुशासित और चुनाव-प्रेरित पार्टी में यह असामान्य नहीं है कि शीर्ष नेतृत्व अपने विश्वासपात्र नेता को बिना किसी सार्वजनिक बहस या विकल्प के दोबारा कमान सौंप दे।
महेंद्र भट्ट के पिछले कार्यकाल की बात करें तो उन्होंने संगठन को मजबूत करने में एक हद तक सफलता पाई है। उन्होंने राज्य के कोने-कोने में संगठनात्मक पहुँच बनाने की कोशिश की और बूथ स्तर तक कार्यकर्ताओं से संवाद स्थापित किया। उन्होंने मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के साथ समन्वय बनाए रखा और भाजपा को एकजुट रखने में बड़ी भूमिका निभाई। हालाँकि, यह भी एक तथ्य है कि उत्तराखंड में भाजपा को हाल के वर्षों में कुछ राजनीतिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा है — निकाय चुनावों में असंतोष, संगठन और सत्ता के बीच मतभेद, और कार्यकर्ताओं के बीच संवाद की कमी जैसी बातें उठती रही हैं।
इन सब के बीच, 2025 में प्रस्तावित पंचायत चुनाव एक बड़ी परीक्षा बनकर सामने आ रही है। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव किसी भी राज्य के लिए महज स्थानीय निकाय चुनाव नहीं होते, बल्कि ये राजनीतिक जमीन की असली नब्ज़ को नापते हैं। भाजपा अगर इस चुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई तो उसका सीधा असर 2027 के विधानसभा चुनाव की तैयारियों पर पड़ सकता है। इस लिहाज से पार्टी का भरोसेमंद, अनुभवी और समन्वयक नेतृत्व में विश्वास जताना स्वाभाविक कदम था। यह भी संभव है कि भट्ट को दोबारा मौका इसलिए दिया गया कि पार्टी किसी नए चेहरे को अभी वह राजनीतिक भार नहीं देना चाहती, जिसके पास अनुभव या संगठन में स्वीकार्यता कम हो।
एक और बड़ा कारण यह भी है कि उत्तराखंड भाजपा कई धड़ों में बंटी रही है। पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत, रमेश पोखरियाल निशंक, तीरथ सिंह रावत और वर्तमान मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी — सभी के अपने-अपने राजनीतिक गुट हैं। इन सबके बीच संतुलन बनाकर चलने वाला चेहरा पार्टी के लिए बेहद आवश्यक था। महेंद्र भट्ट इस भूमिका में अब तक सफल रहे हैं और उनके चयन से पार्टी ने यही संकेत देने की कोशिश की है कि वह फिलहाल किसी भी ध्रुवीकरण से बचना चाहती है। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के लिए भी यह आसान विकल्प था कि वह किसी विवाद या आपसी खींचतान में न पड़कर उसी नेता को दोबारा अवसर दे, जिसने पहले से संगठन को चलाया है।
यह निर्णय एक और सच्चाई को भी उजागर करता है कि भाजपा के पास शायद वर्तमान में कोई ऐसा नया, युवा और सर्वस्वीकार्य चेहरा नहीं है, जिसे प्रदेश संगठन की कमान दी जा सके। यह सवाल पार्टी के भीतर नेतृत्व विकास की प्रक्रिया पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है। जब किसी राजनीतिक दल के पास नेतृत्व देने योग्य युवा चेहरों की कमी हो, तो लंबे समय में यह संगठनात्मक जड़ता का संकेत हो सकता है। यह स्थिति तब और चिंता का कारण बनती है जब पार्टी को अगले दो से तीन वर्षों में स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक कई चुनावों का सामना करना हो।
महेंद्र भट्ट का फिर से अध्यक्ष बनना उनके राजनीतिक कद और केंद्र की स्वीकृति को दर्शाता है, लेकिन उनके सामने अब चुनौतियाँ दोहरी हैं। एक तरफ उन्हें पंचायत चुनावों में पार्टी को मजबूती दिलानी होगी, दूसरी ओर उन्हें संगठन में नई ऊर्जा और युवा नेतृत्व को तैयार करने की भी प्रक्रिया शुरू करनी होगी। यदि वह सिर्फ चुनावी जीत तक ही सीमित रह जाते हैं और संगठन को वैचारिक तथा ढांचागत रूप से नया रूप नहीं दे पाते, तो यह दोबारा कार्यकाल भी महज एक औपचारिकता बनकर रह जाएगा।
उत्तराखंड जैसे छोटे और संवेदनशील राज्य में नेतृत्व का चेहरा बहुत मायने रखता है। यह राज्य भौगोलिक दृष्टि से कठिन, सामाजिक दृष्टि से विविध और राजनीतिक दृष्टि से अस्थिरताओं से भरा हुआ है। यहाँ का मतदाता जागरूक भी है और परिवर्तनशील भी। ऐसे में संगठनात्मक नेतृत्व की भूमिका केवल टिकट वितरण या कार्यक्रम आयोजन तक सीमित नहीं रह जाती, बल्कि वह जन-भावनाओं को समझने, स्थानीय मुद्दों को समाहित करने और केंद्र के नीतिगत निर्देशों को स्थानीय स्तर पर प्रभावी ढंग से लागू करने की क्षमता भी माँगती है।
भट्ट को अपने इस दूसरे कार्यकाल में न केवल पंचायत चुनाव को ध्यान में रखते हुए संगठन को युद्धस्तर पर सक्रिय करना होगा, बल्कि उन्हें भाजपा के कैडर में भविष्य के लिए राजनीतिक प्रशिक्षण, विचारधारा का पुनर्निर्माण और डिजिटल कार्यशैली को भी बढ़ावा देना होगा। सोशल मीडिया, बूथ संपर्क, महिला और युवा मोर्चा के सशक्तिकरण जैसे क्षेत्रों में ठोस काम किए बिना संगठनात्मक सफलता अधूरी रह जाती है।
इस निर्णय को मजबूरी कहें या रणनीति — यह स्पष्ट है कि भाजपा ने फिलहाल ‘सेफ मूव’ खेला है। यह चुनावी दृष्टि से तार्किक हो सकता है, लेकिन यदि इसे दीर्घकालिक योजना और नए नेतृत्व के पोषण से नहीं जोड़ा गया तो आने वाले वर्षों में यह ‘मजबूरी की राजनीति’ का प्रतीक भी बन सकता है। राजनीति में अनुभव ज़रूरी है, परंतु निरंतरता और बदलाव के बीच संतुलन न बना पाना किसी भी संगठन के लिए धीमी क्षरण प्रक्रिया का कारण बन सकता है।
अभी महेंद्र भट्ट को दोबारा अध्यक्ष बनाकर भाजपा ने एक भरोसेमंद नेतृत्व को आगे रखा है। अब यह महज एक व्यक्ति की भूमिका नहीं, बल्कि पूरे संगठन की दिशा और दशा तय करने वाला अध्याय है, जिसकी समीक्षा आने वाले पंचायत चुनावों में ही नहीं, बल्कि 2027 के विधानसभा चुनाव में असली रूप में होगी। यदि वह इस कार्यकाल को संगठन की जड़ों को और गहरा करने के अवसर के रूप में लेते हैं, तो यह दोबारा अध्यक्ष बनना एक साहसिक और सफल निर्णय साबित हो सकता है। वरना यह राजनीति की उस पुरानी कहावत को ही दोहराएगा — जहाँ नए विकल्पों के अभाव में पुराने नाम ही ‘जरूरत’ बन जाते हैं।