
(सलीम रज़ा पत्रकार)
देहरादून, जिसे प्रकृति का उपहार माना जाता है, आज अपने ही भीतर पल रही एक गंभीर समस्या से जूझ रहा है। शहर की दो प्रमुख नदियां — बिंदाल और रिस्पना — जो कभी जीवनदायिनी थीं, अब संकट का कारण बनती जा रही हैं। इन नदियों के किनारों पर बसी अवैध बस्तियों ने न केवल प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ा है, बल्कि वहां रह रहे हजारों लोगों के जीवन को भी खतरे में डाल दिया है।
शहरीकरण की दौड़ में देहरादून जिस तेजी से आगे बढ़ा, उतनी ही तेजी से इन नदियों के किनारे की जमीनें मानव बस्तियों से भरती चली गईं। बिंदाल और रिस्पना के तटों पर झुग्गी-झोपड़ियों से लेकर पक्के मकानों तक की बेतरतीब और अनियंत्रित बसावट अब एक गंभीर खतरे की ओर इशारा कर रही है। मानसून के दिनों में जब बारिश सामान्य से थोड़ी अधिक होती है, तो यही नदियां उफन कर इन बस्तियों को निगलने को तैयार खड़ी हो जाती हैं।
जलवायु परिवर्तन और अनियमित वर्षा के चलते बाढ़ की घटनाएं अब असामान्य नहीं रहीं। बिंदाल नदी का इतिहास गवाह है कि थोड़ी सी भारी बारिश भी इसके किनारे बसे लोगों के लिए तबाही का पैगाम बन जाती है। सड़कों पर पानी भर जाता है, घरों में गंदा पानी घुस जाता है, और कई बार लोगों को रातों-रात अपना सबकुछ छोड़कर जान बचाकर भागना पड़ता है। ऐसी स्थिति में सबसे अधिक प्रभावित होते हैं गरीब और निम्नवर्गीय लोग, जो इन बस्तियों में मजबूरी में बसे हैं।
सरकार और नगर निगमों की तरफ से समय-समय पर अतिक्रमण हटाने की कार्यवाही की बातें होती रही हैं, लेकिन राजनीतिक दबाव, सामाजिक विरोध और वैकल्पिक व्यवस्था की कमी के चलते ये अभियान अधूरे रह जाते हैं। प्रशासनिक सुस्ती और योजनाओं की कमी ने समस्या को और जटिल बना दिया है।
इसका एक सामाजिक पहलू भी है। इन बस्तियों में रहने वाले लोगों में से अधिकतर दैनिक मजदूरी करने वाले, छोटे दुकानदार या श्रमिक वर्ग से आते हैं। इनके पास आर्थिक संसाधनों की भारी कमी होती है और ये लोग किसी दूसरी जगह पर बसने का खर्च नहीं उठा सकते। नदियों के किनारे रहने की मजबूरी को इन लोगों ने नियति मान लिया है, लेकिन जब आपदा आती है, तो वही नियति मौत का दूसरा नाम बन जाती है।
रिस्पना नदी की स्थिति भी कुछ अलग नहीं है। अतिक्रमण के कारण नदी की चौड़ाई सिमट चुकी है। वर्षा जल के बहाव का प्राकृतिक मार्ग बाधित हो गया है, जिससे बाढ़ की तीव्रता और प्रभाव दोनों बढ़ जाते हैं। इसके अतिरिक्त, दोनों नदियों में लगातार हो रहा कचरा और सीवेज का प्रवाह इनकी जलधाराओं को जहरीला बना रहा है, जिससे न केवल जल जीवन, बल्कि आसपास की आबादी भी प्रभावित हो रही है।
पर्यावरण विशेषज्ञ कई वर्षों से चेतावनी दे रहे हैं कि यदि समय रहते इन बस्तियों को हटाकर सुरक्षित स्थानों पर पुनर्वास नहीं किया गया और नदियों को उनके प्राकृतिक स्वरूप में बहने नहीं दिया गया, तो भविष्य में कोई भी बड़ी बारिश देहरादून को एक जलप्रलय में तब्दील कर सकती है।
अब समय आ गया है कि सरकार, प्रशासन, पर्यावरणविद् और आम नागरिक मिलकर इस गंभीर संकट को समझें। केवल कागज़ी योजनाओं और अधूरी घोषणाओं से बात नहीं बनेगी। ज़रूरत है ठोस निर्णयों की, जिनमें मानवीय संवेदना और पर्यावरणीय दृष्टिकोण दोनों का समावेश हो। क्योंकि यदि आज भी देरी हुई, तो कल शायद कुछ भी बचाने को नहीं रहेगा — न बिंदाल, न रिस्पना, न ही वे बस्तियां जिनमें आज जीवन साँस ले रहा है और कल किसी अनहोनी का शिकार हो सकता है।