
प्रीति नेगी
देहरादून (उत्तराखण्ड)
उत्तराखंड हमेशा से लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। यहां की बर्फ से ढकी चोटियाँ, नदियाँ, झरने और मंदिर हर साल करोड़ों लोगों को अपनी ओर खींचते हैं। लेकिन अब यह खूबसूरत राज्य पर्यटकों की बढ़ती भीड़ से जूझ रहा है। 2025 में यहां करीब 6 से 8.4 करोड़ पर्यटक पहुंचे। यह संख्या अब तक की सबसे ज़्यादा है। पिछले साल ही अगस्त तक 3 करोड़ से अधिक लोग आए थे, और अब हर साल लगभग 20% की दर से बढ़ोतरी हो रही है।
धार्मिक स्थलों जैसे केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री में इस बार 50 लाख से ज्यादा श्रद्धालु पहुंचे। औसतन उत्तराखंड में पर्यटन की वृद्धि दर 11.97% रही है, जो देश के अन्य राज्यों से बहुत अधिक है। इन आंकड़ों से साफ है कि राज्य में पर्यटन लगातार बढ़ रहा है और लोगों की आस्था और रोमांच दोनों इस दिशा को आगे बढ़ा रहे हैं।
पर्यटन ने उत्तराखंड को आर्थिक रूप से बहुत मजबूती दी है। राज्य की जीडीपी में पर्यटन का योगदान लगभग 3% है और इससे करीब 11.8% लोगों को सीधा रोजगार मिलता है। अगर इससे जुड़े अन्य कामों — जैसे होटल, टैक्सी, ट्रैवल एजेंसी और होमस्टे — को भी जोड़ लिया जाए, तो यह रोजगार का लगभग 26% हिस्सा बनता है। 2023 में राज्य को पर्यटन से करीब 23,000 करोड़ रुपये की कमाई हुई थी। इससे युवाओं को रोजगार मिला, स्थानीय व्यापार बढ़ा और गाँवों में भी विकास के नए रास्ते खुले।
पर्यटन के कारण कई लोगों की जिंदगी बदली है। छोटे कस्बों और गाँवों में अब होमस्टे चलने लगे हैं। महिलाएँ स्थानीय व्यंजन और हस्तशिल्प बेचकर आत्मनिर्भर बन रही हैं। यह सब देखकर लगता है कि पर्यटन ने उत्तराखंड के लोगों को नई उम्मीद दी है।
लेकिन इस चमक के पीछे कुछ चिंताजनक तस्वीरें भी हैं। जिस तेजी से पर्यटकों की संख्या बढ़ी है, उसी तेजी से पर्यावरण पर दबाव भी बढ़ा है। नैनीताल, मसूरी, ऋषिकेश और औली जैसे जगहों पर हर मौसम में भारी भीड़ उमड़ रही है। इससे ट्रैफिक जाम, कचरा फैलना और जल स्रोतों पर बोझ जैसी समस्याएँ बढ़ गई हैं। कई बार तो स्थानीय लोगों को पीने का पानी तक मुश्किल से मिलता है।
होटलों और होमस्टे की संख्या तेजी से बढ़ रही है। जगह-जगह निर्माण हो रहा है, जिससे पहाड़ों की स्थिरता पर असर पड़ रहा है। भूस्खलन और मिट्टी के कटाव की घटनाएँ बढ़ रही हैं। नदियाँ और झीलें प्रदूषित हो रही हैं। नैनीताल झील का जलस्तर लगातार घट रहा है। मसूरी में ट्रैफिक जाम आम बात हो गई है और ऋषिकेश में गंगा किनारे अब पहले जैसी शांति नहीं रही।
स्थानीय व्यापार पर भी असर पड़ा है। जहाँ छोटे दुकानदार और होमस्टे मालिकों को फायदा हुआ है, वहीं बड़े होटल और बाहरी कंपनियाँ बाज़ार पर कब्ज़ा करने लगी हैं। इससे स्थानीय व्यवसायों को नुकसान हो रहा है और पारंपरिक जीवनशैली भी बदल रही है। गाँवों में अब पहले जैसी सादगी और अपनापन कम होता जा रहा है।
सरकार ने इन चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए “सशक्त उत्तराखंड 2025” विजन के तहत टिकाऊ पर्यटन की दिशा में काम शुरू किया है। अब सामुदायिक पर्यटन, ईको-टूरिज्म और स्मार्ट टूरिज्म पर ज़ोर दिया जा रहा है। इसका उद्देश्य यह है कि पर्यटन से विकास तो हो, लेकिन पर्यावरण और संस्कृति को नुकसान न पहुँचे।
पर्यटकों की भी ज़िम्मेदारी है कि वे प्रकृति के साथ संवेदनशील रहें। पहाड़ों पर घूमने जाना सिर्फ फोटो खिंचवाने या मस्ती करने का अवसर नहीं है, बल्कि यह जिम्मेदारी भी है कि उस जगह को वैसा ही साफ-सुथरा और शांत छोड़ा जाए जैसा आपने पाया था। कचरा न फैलाना, प्लास्टिक का कम उपयोग करना और स्थानीय परंपराओं का सम्मान करना हर यात्री का कर्तव्य होना चाहिए।
उत्तराखंड के पहाड़ न केवल सुंदर हैं बल्कि संवेदनशील भी हैं। अगर हमने इस संतुलन को नहीं समझा तो आने वाले सालों में यही पर्यटन राज्य के लिए मुसीबत बन सकता है। जरूरत है कि हम विकास और पर्यावरण के बीच सही संतुलन बनाकर चलें।
उत्तराखंड की पहचान उसकी शांति, प्रकृति और अध्यात्म में है। अगर यह पहचान भीड़ और प्रदूषण में खो गई, तो यह राज्य अपनी असली खूबसूरती खो देगा। इसलिए आज जरूरत है जिम्मेदार और सोच-समझकर किए गए पर्यटन की। जब पर्यटक, स्थानीय लोग और सरकार — तीनों मिलकर इस दिशा में कदम बढ़ाएँगे, तभी पहाड़ों की यह सुंदरता आने वाली पीढ़ियों तक सुरक्षित रह सकेगी।
उत्तराखंड को बचाने के लिए अब यह समझना जरूरी है कि असली आकर्षण भीड़ में नहीं, बल्कि प्रकृति की शांति और उसकी सादगी में है। अगर हम इस सादगी को संभाल पाए, तो पर्यटन सच में वरदान साबित होगा — वरना यही भीड़ एक दिन इन पहाड़ों के लिए बोझ बन जाएगी।