

( सलीम रज़ा,पत्रकार)
उत्तराखंड की 25 साल की यात्रा एक ऐसे आईने की तरह है, जिसमें राज्य की उपलब्धियों की चमक के साथ-साथ अनसुलझे सवालों की परछाइयां भी साफ झलकती हैं। राज्य स्थापना की रजत जयंती कोई मात्र उत्सव नहीं, बल्कि आत्ममंथन का अवसर है — एक मौका यह समझने का कि हमने अब तक क्या पाया, क्या खोया, और आगे का रास्ता किस दिशा में तय करना है। उत्तराखंड के लोग, जिन्होंने कभी अलग राज्य की मांग इसलिए की थी ताकि विकास पहाड़ों तक पहुंचे, आज सवाल कर रहे हैं कि क्या वह सपना सच हो पाया है?
बीते ढाई दशक में उत्तराखंड ने बेशक कई उपलब्धियां हासिल की हैं। सड़कें बनीं, स्कूल और कॉलेज खुले, स्वास्थ्य सुविधाएं कुछ क्षेत्रों तक पहुंचीं, और पर्यटन ने आर्थिक गतिविधियों को नई गति दी। चारधाम यात्रा, योग नगरी ऋषिकेश, औली, मुनस्यारी और फूलों की घाटी जैसे स्थानों ने राज्य को अंतरराष्ट्रीय पहचान दी। बिजली उत्पादन और जलविद्युत परियोजनाओं ने भी राज्य को आत्मनिर्भरता की राह पर आगे बढ़ाया। लेकिन इन सबके बीच कुछ सवाल आज भी जस के तस हैं — क्या यह विकास समान रूप से सब तक पहुंचा? क्या पहाड़ के गांवों में रहने वाले परिवारों को भी इसका लाभ मिला?
राज्य की सबसे बड़ी चुनौती आज भी पलायन है। हजारों गांव वीरान हो चुके हैं, जिनके दरवाजों पर अब सिर्फ ताले हैं। जो राज्य कभी “देवभूमि” कहलाता था, उसके कई हिस्से अब “घोस्ट विलेज” में तब्दील हो गए हैं। रोजगार के अभाव में युवा मैदानों की ओर जा रहे हैं, और बुजुर्ग गांवों में अकेले रह गए हैं। यह पलायन केवल आर्थिक समस्या नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक विघटन का प्रतीक है। परंपराएं टूट रही हैं, खेत सूने पड़ रहे हैं, और सामुदायिक जीवन की वह आत्मा जो पहाड़ की पहचान थी, धीरे-धीरे खोती जा रही है।
स्वास्थ्य सेवाओं की हालत भी बेहद चिंताजनक है। पहाड़ों में डॉक्टर नहीं, दवाइयां नहीं, और कई जगहों पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र केवल कागजों में मौजूद हैं। गर्भवती महिलाओं को आज भी कई किलोमीटर पैदल चलकर अस्पताल पहुंचना पड़ता है। आपात स्थिति में एंबुलेंस का न मिलना कोई नई बात नहीं। सवाल उठता है कि जब सरकारें हर साल करोड़ों के बजट का दावा करती हैं, तो फिर पहाड़ के नागरिक को बुनियादी स्वास्थ्य सुविधा क्यों नहीं मिल पाती?
शिक्षा के क्षेत्र में भी चुनौतियां कम नहीं हैं। शिक्षा का ढांचा फैला जरूर है, पर गुणवत्ता की भारी कमी है। ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षक नदारद हैं, स्कूल भवन जर्जर हैं, और तकनीकी शिक्षा का अभाव है। हजारों छात्र उच्च शिक्षा के लिए देहरादून, हल्द्वानी या दिल्ली की राह पकड़ते हैं। क्या यह विडंबना नहीं कि ज्ञान और संस्कृति की भूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड में शिक्षा का केंद्र पहाड़ों से खिसकता जा रहा है?
राज्य की अर्थव्यवस्था पर नजर डालें तो पर्यटन और सेवा क्षेत्र ही इसके मुख्य स्तंभ बने हैं। लेकिन कृषि, जो कभी पहाड़ की आत्मा थी, आज हाशिए पर है। पारंपरिक खेती और जैविक उत्पादों को बढ़ावा देने के बजाय बाहरी मॉडल थोपे जा रहे हैं। किसानों की आय में वृद्धि की बातें जरूर होती हैं, पर पहाड़ों के खेतों में मेहनत करने वाले किसान को अब भी अपने उत्पादों का उचित मूल्य नहीं मिलता।
पर्यावरणीय असंतुलन अब गंभीर चेतावनी बन चुका है। उत्तराखंड की नदियां, जंगल और पहाड़ राज्य की पहचान हैं, लेकिन अवैध खनन, अनियोजित निर्माण और ग्लेशियरों पर बढ़ते दबाव ने पारिस्थितिकी को असंतुलित कर दिया है। हर साल भूस्खलन, बाढ़ और आपदाएं अब सामान्य खबर बन चुकी हैं। यह केवल प्रकृति की नाराजगी नहीं, बल्कि हमारी नीतिगत लापरवाही का परिणाम है।
राजनीतिक अस्थिरता भी उत्तराखंड की स्थायी समस्या रही है। 25 सालों में कई बार सरकारें बदलीं, मुख्यमंत्री बदले, और हर नई सरकार ने नई घोषणाएं कीं। लेकिन नीति की निरंतरता नहीं बन सकी। आज भी कई योजनाएं अधूरी हैं, बजट घोषणाएं कागजों तक सीमित हैं। विपक्ष सवाल तो उठाता है, पर ठोस विकल्प देने में अक्सर चूक जाता है। लोकतंत्र की सच्ची ताकत तब ही दिखेगी जब सत्ता और विपक्ष दोनों जनता के मुद्दों पर मिलकर काम करें, न कि केवल राजनीतिक लाभ के लिए वाद-विवाद करें।
राज्य के संवेदनशील और स्थायी सवालों में सबसे अहम है — गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने का मुद्दा। आंदोलन के दौरान यह मांग सबसे प्रबल थी कि राजधानी ऐसी जगह हो जो पहाड़ की भावना और जनसामान्य की पहुंच दोनों का प्रतिनिधित्व करे। लेकिन 25 साल बीत जाने के बाद भी यह मुद्दा अधर में लटका है। देहरादून से शासन चलाने की सुविधा ने शायद राजनीतिक इच्छाशक्ति को कमजोर कर दिया है। गैरसैंण का सवाल केवल भौगोलिक नहीं, बल्कि भावनात्मक और प्रतीकात्मक है — यह तय करेगा कि राज्य अपने मूल वादे के प्रति कितना ईमानदार है।
इसी तरह भू-कानून का सवाल भी आज जनता के बीच गूंज रहा है। सख्त भू-कानून की मांग इसलिए उठ रही है ताकि बाहरी पूंजी और भूमि कारोबारियों द्वारा पहाड़ की जमीनों की खरीद-फरोख्त पर रोक लगे। पहाड़ की जमीनें केवल संपत्ति नहीं, बल्कि संस्कृति और अस्तित्व का आधार हैं। अगर इन पर नियंत्रण नहीं रहा, तो उत्तराखंड का भूगोल ही नहीं, उसका जनगोल भी बदल जाएगा। यह केवल भूमि की रक्षा का प्रश्न नहीं, बल्कि पहाड़ी समाज के आत्म-संरक्षण का सवाल है।
मूल निवासी का मुद्दा भी अब नया मोड़ ले रहा है। राज्य के भीतर पहचान और अधिकार की बहस बढ़ रही है। यह बहस राजनीतिक दलों के लिए भले ही संवेदनशील हो, पर इसे टालना उत्तराखंड के भविष्य के साथ अन्याय होगा। राज्य के युवाओं को अपने संसाधनों पर प्राथमिकता और रोजगार में आरक्षण मिलना ही स्थायित्व और भरोसे की नींव रख सकता है।
सामाजिक दृष्टि से देखें तो उत्तराखंड ने महिलाओं की भागीदारी में नई मिसालें कायम की हैं। स्वयं सहायता समूहों से लेकर शिक्षा और प्रशासन तक, महिलाएं नेतृत्व की भूमिका में उभरी हैं। लेकिन घरेलू हिंसा, बेरोजगारी और असमान अवसर जैसे मुद्दे अभी भी राज्य की सामाजिक प्रगति में बाधा हैं।
अब समय आ गया है कि उत्तराखंड केवल अपने अतीत की उपलब्धियों पर गर्व करने के बजाय भविष्य की ठोस दिशा तय करे। विकास का अर्थ केवल सड़कों और पुलों से नहीं, बल्कि नागरिकों के जीवन स्तर से तय होता है। उत्तराखंड को अब घोषणाओं से आगे बढ़कर अमल की दिशा में कदम रखना होगा — स्थानीय संसाधनों का संरक्षण, युवाओं को रोजगार, और गांवों को पुनर्जीवित करना ही वास्तविक प्रगति का रास्ता है।
रजत जयंती का यह पर्व एक दर्पण लेकर आया है — जो हमें हमारी सफलताओं की झलक दिखाता है, लेकिन साथ ही उन घावों को भी याद दिलाता है जिन्हें हमने अब तक अनदेखा किया। अब उत्तराखंड को यह तय करना है कि वह केवल उत्सव मनाने वाला राज्य रहेगा या आत्मनिर्भर, संवेदनशील और जवाबदेह राज्य बनेगा।
वह भविष्य जिसमें हर बच्चा पढ़ सके, हर गांव फिर से बस सके, हर नदी स्वच्छ बहे, और हर नागरिक को यह भरोसा हो कि उसका राज्य वास्तव में “देवभूमि” है — केवल नाम से नहीं, कर्म से भी। यही होगी 25 वर्षों की इस यात्रा की सच्ची सार्थकता और यही दिशा उत्तराखंड को उसकी असल पहचान तक पहुंचाएगी।








