तेजी से बढ़ते आज के वैश्विक बाजार के बीच अंग्रेजी या कोई और विदेशी भाषा जैसे कि जर्मन, स्पेनिश, फ्रेंच आदि सीखना अब एक आम बात हो गयी है। इसे सिखाने के लिए आजकल बहुत से संस्थान भी हैं। लेकिन छोटे शहरों से आने वाले नवयुवक अपने आपको इस परिस्थिति में देखकर परेशान हो जाते हैं और कई बार हिम्मत हार जाते हैं।
ऐसे में मुझे अपना एक किस्सा याद आता है। जब मैं उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कस्बे से निकल कर कंप्यूटर की पढ़ाई करने के लिए दिल्ली आया। उस समय मेरी भाषा हिंदी थी।
वैसे तो ग्रेजुएशन तक मैंने इंग्लिश लैंग्वेज और लिटरेचर दोनों की पढ़ाई की थी, लेकिन इंग्लिश मेरी भाषा नहीं थी। लेकिन दिल्ली पहुंचते ही मुझे बड़ा झटका लगा, जब मैंने पाया कि कंप्यूटर की पढ़ाई सौ प्रतिशत इंग्लिश में ही हो रही है। यहां तक कि टीचर्स और स्टूडेंट्स सभी एक-दूसरे से इंग्लिश में ही बात कर रहे हैं।
एक महीने बाद मासिक टेस्ट हुआ, तो मैं आशा के अनुसार पास नहीं हुआ था। ऐसे में मेरी एक टीचर ने मुझे बुलाया और परेशानी का कारण पूछा। मैंने कहा कि आपकी कही बातें समझ में नहीं आती हैं।
तब उन्होंने कहा कि एक बार कोशिश करके इंग्लिश से दोस्ती करके तो देखो, फिर कोई मुश्किल नहीं होगी। उनकी बात को सोचते-सोचते घर पहुंचा। इस परेशानी के समाधान के तौर पर डिक्शनरी लेकर रोजाना तीन-चार पेज पढ़ने शुरू किये।
इसके अलावा, क्लास में टीचर से बार-बार पूछकर कठिन शब्द जो समझ में नहीं आते थे, नोटबुक में नोट करके घर जाकर उसे डिक्शनरी से समझने शुरू किये। रोजाना कजिन के साथ अंग्रेजी में छोटे-छोटे वाक्य बनाकर बोलना शुरू किया।
अंग्रेजी का न्यूजपेपर पढ़ने से भी मदद मिली। अंग्रेजी की न्यूज भी सुनना शुरू किया। पूरे कमिटमेंट के साथ मेहनत करने का फल दिखना प्रारंभ हुआ। अगले मासिक टेस्ट में मैं पास हुआ।
ऐसा करने से उत्साहवर्धन हुआ और डेली नोट्स बनाने की प्रक्रिया भी प्रारंभ कर दी, जिसका फल वार्षिक परीक्षा में मिला। मैं पूरी कक्षा में प्रथम आया।