कहते हैं चुनाव में यदि किसी की बहुत बड़ी भूमिका होती है वो है राज्य का युवा ये बात ठीक है लेकिन कामगार भी एक ऐसा समूह है यदि वो असंतुष्ट है तो उसके असंतोष का खामियाजा सियासी दलों खासतौर से मौजूदा सरकार को भुगतना पड़ता है इन्हीं की आवाज परिवर्तन की बयार लाती है ऐसा ही कुछ नजर आ रहा है उत्तराखण्ड में जहां राज्य के चुनावी महासमर में तकरीबन चार लाख कर्मचारी और पेंशनर किस करवट बैठेंगे इसकी टोह लेना बहुत मुश्किल है। आपको बता दें कि यह ऐसा समूह है जो एक बड़े वोटरों के समूह को प्रभावित करता है। बहरहाल चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले इस समूह को लुभाने के लिए कोई भी सियासी पार्टी कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहती हैं। ये ही वजह है कि सरकारें इनकी कई अनसुलझी और पेचीदा मांगों को सुलझाने में भी कोर कसर नहीं छोडऩा चाहती हैं । वहीं विपक्ष भी कर्मचारियों को बैलेंस करने के लिए इनकी मांगों पर सुर से सुर मिलाए रहते हैं।
आपको बता दें कि देवभूमि उत्तराखंड में सबसे ज्यादा कामगार सरकारी सेवाओं में हैं। उत्तराखण्ड की सरकारी सेवाओं में कार्यरत तकरीबन 2.50 लाख सरकारी कर्मचारी हैं जबकि शिक्षकों की संख्या 60 हजार के करीब है और इतनी ही संख्या में पेंशनर भी हैं। राज्य में निकाय कर्मियों की संख्या भी 50 हजार से ज्यादा है जबकि उपनल,पीआरडी, होमगार्ड और संविदा कर्मियों की संख्या 40 हजार से ज्यादा है। गौरतलब है कि राज्य में कुल संख्या 4.50 लाख से ज्यादा है। यदि एक कर्मचारी के पीछे उसके परिवार के छह व्यक्तियों को भी जोड़ दिया जाए तो यह आंकड़ा 18 लाख के करीब पहुंचता है। यह तादाद कुल वोटरों का तकरीबन 22 प्रतिशत है।
अब सबसे बड़ा सवाल ये उठता है की कामगारों के इस समूह के असर को सभी सियासी दल अच्छी तरह समझते हैं। इसे देखते हुए कोई भी सियासी दल इस कामगार समूह को नाराज करने की स्थिति में नहीं रहता है। ये ही वजह है कि जब भी कामगार संगठन अपनी आवाज मुखर करते हैं तो सरकारों को उनके सामने झुकना ही पड़ता है। आंदोलन में सख्ती दिखाने और वेतन काटने तक के आदेश देने के बावजूद अन्तता सरकार को अपने कदम पीछे ही खींचने पड़ते हैं। नतीजतन कामगार संगठनों के ज्यादातर आंदोलन सफल ही होते हैं।
वैसे तो सरकारी कर्मचारी आचरण नियमावली में बंधे होने की वजह से किसी भी सियासी दल की सदस्यता नहीं ले सकते लेकिन यह बात सोलह आने सही है कि कई संगठन ऐसे हैं जो विभिन्न दलों की विचारधारा से जुड़े हैं। रिटायरमेंट के बाद इन्हें इन राजनीतिक दलों में सक्रिय कार्यकर्त्ता की भूमिका में भी आप देख सकते हैं। उत्तराखण्ड में शायद ही कोई ऐसा विभाग या निकाय होगा जहां कर्मचारी संगठन अस्तित्व में हैं। हर विभाग में कम से कम दो से तीन कर्मचारी संगठन हैं। हालांकि कुछ विभागों में इनकी संख्या इससे अधिक है। यहां तक कि प्रदेश में आउटसोर्स कर्मचारी जैसे आशा कार्यकर्ता भोजनमाता,पीआरडी कर्मचारी व उपनल कर्मियों के भी अपने अलग संगठन हैं।