ज़ीशान अहमद सिद्दिक़ी /
हमारे देश में कब क्या फसाद जन्म ले ले किसी को पता नहीं होता। देश की सियासत रोज नये-नये प्रकरण सामने रखकर अपनी सियासत चमकाने की नाकाम कोशिशें करती रहती हैं। अभी हाल ही में हिजाब को लेकर देश के अन्दर एक नई बहस ने जन्म ले लिया नई-नई सियासत की पाठशाला में नई-नई दलीलें भी तैयार हो गईं जिसके चलते पूरे देश का माहौल गर्म है। कहने को तो देश या दुनिया का कोई साभी धर्म हो चाहें हिन्दू हो सिक्ख हो ईसाई हो या फिर मुस्लिम हर धर्म महिलाओं को ढ़ंकने की बात करता है, इतना ही नहीं वो चाहता भी हे कि ड्रेस कोड भी बने। आपकी जानकारी में ला दें कि अरब संस्कृति में हिजाब,बुर्का या नकाब का प्रचलन इस्लाम से भी पहले से चला आ रहा है। यहूदी और ईसाई महिलाऐं कुछ ऐसा ही ड्रेस अरब में पहनती चली आई हैं। फिर जान ही लो हिजाब,नक़ाब और बुर्के में अन्तर क्या है। हिजाब में सिर्फ सिर, कान और गले को कवर किया जाता है अगर ये बड़ा है तो कन्धे को भी ढ़ंक लेता है। आगे मैं और तफ्सील से नहीं बताऊंगा क्योंकि इस वक्त मुल्क में हिजाब को लेकर एक बड़ी बहस छिड़ गई है। पर्दा, यह सब वो अल्फ़ाज़ है कि जिनके तकरीबन एक ही माने है मुख़्तलिफ कौमों, तबकों और इलाकों मे ख्वातींन (औरतों) के उस तहज़ीबी अमल को ज़ाहिर करने के लिए बोले जाते है कि जिस को इंसानी तारीख और मौहज़्ज़ब समाज मे औरतों की हया,हुस्न,ज़ीनत,ज़ेवर और ईमतियाज़ से ताबीर किया गया है मगर बाज़ नादांन सदियों पुरानी इस तहज़ीब को भी नए ज़माने की उस ओछी सियासात के चश्मे से देखते है कि जो हक़ीक़त को क़रीब से देखने के लिए नहीं वल्कि हक़ीक़त से नज़रें चुराने के लिए इस्तेमाल किये जाते है। बेसिक इशूज़ से अवामं (जनता) के ज़हन (घ्यान)को हटाने के लिए हमेशा इस तरह के इशूज़ (मुद्दे)उछाले जाते है दरअसल हिजाब पहनना आस्था का प्रतीक है न कि धार्मिक कटटरता। हमारे देश के संविधान के अनुच्छेद-25 के अन्दर इसे अन्तःकरण की स्वतंत्रता की बात कही गई है लिहाजा ये आस्था का प्रतीक है न कि धार्मिक पहचान या कट्टरता लिहाजा पब्लिक को एकमत होकर इस पालिटिकल स्टंट को रिजेक्ट कर देना चाहिए ।