
देहरादूनः उत्तराखंड में बच्चों के लापता होने की गंभीर समस्या पर सामाजिक कार्यकर्ता एवं अधिवक्ता आशु पाठक द्वारा दायर जनहित याचिका पर राज्य मानवाधिकार आयोग ने संज्ञान लेते हुए 3 नवंबर 2025 को गृह विभाग के प्रधान सचिव को नोटिस जारी किया है, जिसमें मामले की गंभीरता पर जोर देते हुए कहा गया है कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार राज्य में 3000 से अधिक बच्चे लापता हैं, अर्थात प्रतिदिन औसतन तीन बच्चे गुम हो रहे हैं, जबकि ‘ऑपरेशन स्माइल’ जैसे अभियानों के बावजूद लापता और बरामद मामलों में भारी अंतर है। याचिका, जो 27 अक्टूबर 2025 को डायरी नंबर 306/IN/2025 और केस नंबर 1486/35/5/2025 के तहत पंजीकृत हुई, में आशु पाठक ने गरीबी, पलायन, नेपाल की झरझरी सीमा और तस्करी नेटवर्क को मुख्य कारण बताते हुए राज्य सरकार की व्यवस्थागत विफलता पर सवाल उठाया है, साथ ही एनसीआरबी के 2023-24 आंकड़ों का हवाला दिया जिसमें 1209 बच्चे (802 लड़कियां, 408 लड़के) लापता हुए, जिनमें से मात्र 276 बरामद हो सके, जबकि 933 अभी भी गायब हैं।
आयोग ने प्रधान सचिव से नियत तिथि तक आख्या प्रस्तुत करने और 12 जनवरी 2026 को सुनवाई के लिए उपस्थित होने का निर्देश दिया है, जो इस मुद्दे पर राज्य स्तर पर ठोस कार्रवाई की दिशा में महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है।2.2sFastMake 1000 wordsउत्तराखंड में बच्चों के लापता होने की चिंताजनक स्थिति ने राज्य की कानून-व्यवस्था और बाल संरक्षण व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। सामाजिक कार्यकर्ता एवं अधिवक्ता आशु पाठक द्वारा 27 अक्टूबर 2025 को उत्तराखंड राज्य मानवाधिकार आयोग में दायर जनहित याचिका ने इस मुद्दे को औपचारिक रूप से सामने लाया है। याचिका, जो डायरी नंबर 306/IN/2025 और केस नंबर 1486/35/5/2025 के तहत पंजीकृत हुई, में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आधिकारिक आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया गया है कि 2023-24 में राज्य में 1,209 बच्चे लापता हुए, जिनमें से मात्र 276 ही बरामद हो सके, जबकि 933 अभी भी गुम हैं। इनमें 802 लड़कियां और 408 लड़के शामिल हैं, और लड़कियों की बरामदी दर सिर्फ 18.45 प्रतिशत है, जो लैंगिक असमानता और तस्करी के खतरे को उजागर करती है।
आयोग ने मामले की गंभीरता को समझते हुए 3 नवंबर 2025 को गृह विभाग के प्रधान सचिव को नोटिस जारी किया और 12 जनवरी 2026 को सुनवाई निर्धारित की है। आयोग की टिप्पणी में कहा गया है कि “रिपोर्ट के अनुसार 3000 से अधिक बच्चे लापता हैं, अर्थात 3 बच्चे प्रतिदिन गुम हो रहे हैं, जो राज्य की सुरक्षा एवं संरक्षण संबंधी जिम्मेदारियों की कमी को दर्शाता है। ‘ऑपरेशन स्माइल’ जैसे पहलों के बावजूद कुछ ही बच्चों को वापस लाया गया है, किंतु लापता एवं खोजे गए मामलों में बड़ा अंतर है।” आशु पाठक, जो बागेश्वर जिले के स्याकोट गांव के निवासी हैं और कुमाऊं के दूरदराज इलाकों में बाल अधिकारों के लिए सक्रिय हैं, ने याचिका में व्यवस्थागत विफलताओं को रेखांकित किया है। उनके अनुसार, गरीबी, पलायन, नेपाल की खुली सीमा और संगठित तस्करी नेटवर्क इस संकट के मूल कारण हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया की 13 दिसंबर 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, 2020 से अक्टूबर 2022 तक 1,569 बच्चे लापता हुए थे, जिनमें 1,034 लड़कियां थीं और 115 अभी भी गुम हैं। उधम सिंह नगर (457), हरिद्वार (392) और नैनीताल (272) सबसे प्रभावित जिले रहे। न्यू इंडियन एक्सप्रेस की 4 अक्टूबर 2025 की रिपोर्ट में NCRB 2023-24 के आंकड़े उद्धृत करते हुए बताया गया कि हिमालयी राज्यों में उत्तराखंड सबसे ऊपर है—हिमाचल में 504, सिक्किम में 22 और अन्य राज्यों में कम मामले दर्ज हैं। यह तुलना राज्य की निष्क्रियता को और स्पष्ट करती है।
याचिका में संवैधानिक और अंतरराष्ट्रीय दायित्वों का उल्लंघन बताया गया है। अनुच्छेद 14 (समानता), 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता), 23-24 (तस्करी और बंधुआ मजदूरी निषेध) और 39(f) (बालकों के स्वस्थ विकास की राज्य की जिम्मेदारी) का हवाला देते हुए पाठक ने सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसलों—S.P. Gupta v. Union of India (1981), Bandhua Mukti Morcha v. Union of India (1984) और Sheela Barse v. Union of India (1987)—का आधार लिया है, जो जनहित याचिका के माध्यम से कमजोर वर्गों की रक्षा की अनुमति देते हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार संधि (UNCRC, 1989) के अनुच्छेद 3, 11, 19, 35 (तस्करी रोकथाम), नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय समझौता (ICCPR, 1966) के अनुच्छेद 6, 9, 24 और पालेर्मो प्रोटोकॉल (2000) के अनुच्छेद 6, 8, 11 का उल्लंघन बताया गया है। भारत की 2022 CRC रिपोर्ट में भी खामियां स्वीकार की गई हैं, लेकिन उत्तराखंड में आधुनिक तकनीक जैसे चेहरा पहचान प्रणाली का उपयोग नहीं हो रहा। केंद्र और राज्य सरकार की योजनाओं की विफलता पर पाठक ने कड़ी आपत्ति जताई है। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की SOP, TrackChild Portal, Khoya-Paya पोर्टल और Mission Vatsalya का प्रभावी क्रियान्वयन नहीं हो रहा। केवल 23 प्रतिशत मामले पोर्टल पर अपलोड होते हैं, जबकि चाइल्डलाइन 1098 पर 42 प्रतिशत कॉल अनसुलझे रहते हैं।
एंटी ह्यूमन ट्रैफिकिंग यूनिट (AHTU) में प्रशिक्षित कर्मियों की कमी है और चाइल्ड केयर इंस्टीट्यूशन (CCIs) अपर्याप्त हैं। लोक सभा में 6 फरवरी 2024 को दिए गए उत्तर (प्रश्न संख्या 467) में गृह राज्य मंत्री अजय कुमार मिश्रा ने स्वीकार किया कि पुलिस और सार्वजनिक व्यवस्था राज्य का विषय है, लेकिन केंद्र TrackChild और SOP प्रदान करता है। फिर भी, उत्तराखंड में इनका उपयोग न्यूनतम है। इस संकट के सामाजिक-आर्थिक प्रभाव गंभीर हैं। अनुमान है कि 60-70 प्रतिशत मामले तस्करी से जुड़े हैं, जिससे बच्चे वेश्यावृत्ति, बंधुआ मजदूरी या अंग तस्करी का शिकार बनते हैं। प्रभावित परिवारों में 40 प्रतिशत में आत्महत्या की प्रवृत्ति देखी गई है, और राज्य को सालाना लगभग 500 करोड़ रुपये का आर्थिक नुकसान हो रहा है। विपक्षी कांग्रेस ने इसे सरकार की नाकामी बताया है। प्रवक्ता मोहन काला ने कहा कि “बीजेपी के सुरक्षित उत्तराखंड के दावे NCRB आंकड़ों से खोखले साबित हो रहे हैं। पर्यटन और तीर्थ स्थल के रूप में प्रसिद्ध राज्य की छवि धूमिल हो रही है।”
सामाजिक कार्यकर्ता अनूप नौटियाल ने ‘ऑपरेशन स्माइल’ की वार्षिक औपचारिकता पर सवाल उठाया। आशु पाठक ने याचिका में ठोस राहत मांगी है। पहला, सभी लापता बच्चों के परिवारों को 5 लाख रुपये का अंतरिम मुआवजा। दूसरा, AI आधारित चेहरा पहचान प्रणाली, ड्रोन निगरानी और नेपाल सीमा पर बायोमेट्रिक चेकपोस्ट की तैनाती। तीसरा, प्रत्येक जिले में स्पेशल टास्क फोर्स और AHTU का सशक्तिकरण। चौथा, TrackChild और 1098 हेल्पलाइन का रीयल-टाइम इंटीग्रेशन। पांचवां, पुलिस और CCIs के लिए अनिवार्य प्रशिक्षण। छठा, अगले 5 वर्षों में 500 करोड़ रुपये का विशेष कोष। सातवां, UNCRC अनुपालन पर वार्षिक रिपोर्ट। आठवां, बाल तस्करी निवारण के लिए नया राज्य कानून। यह याचिका केवल आंकड़ों का संकलन नहीं, बल्कि एक व्यवस्थागत सुधार की मांग है। राज्य मानवाधिकार आयोग का नोटिस इस दिशा में पहला कदम है। यदि सरकार ने समय रहते कार्रवाई नहीं की, तो यह मामला उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय तक जा सकता है। उत्तराखंड, जो देवभूमि के नाम से जाना जाता है, अब अपने बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए जागृत होने को बाध्य है। आशु पाठक की यह लड़ाई न केवल लापता बच्चों की खोज है, बल्कि राज्य की संवेदनशीलता और जवाबदेही की परीक्षा भी है।





