सलीम रज़ा
उत्तराखण्ड को सृजित हुये 21 साल हो गये यानि उत्तराखण्ड अब 22 वर्ष का युवा हो चुका है लेकिन इस युवा उत्तराखण्ड में अब तक बहालीएखुशहाली जैसी चीजे कम नजर आईं उससे ज्यादा समस्याओं के अम्बार और मतलब की राजनीति ने समय से पहले उत्तराख्एाण्ड को प्रौढ़ बनाना शुरू कर दियाए नतीजा ये है कि उततराखण्ड के राजनेताओं को प्रदेश को आगे ले जाने का संकल्प कम और कुर्सी की महत्वाकांक्षा ज्यादा नजर आती है। खुद भी देखकर आप अपना अन्दाजा आसानी से लगा सकते हैं कि 21 साल के उत्तराखण्ड प्रदेश में 11 मुख्यमंत्रियों का होना किस कदर राजनीतिक असफलता और राजनेताओं की नाकामी की कहानी बयान कर रहा हैएये ही वजह है कि उत्तराखण्ड विकास के नाम पर आज भी सिसक रहा है। बहरहाल चुनावी दस्तक के बीच उत्तराखण्ड का 21 वां राज्य स्थापना दिवस समारोह धूमधाम से मनाया गया और हमारे युवा ओजस्वीएउर्जावान मुख्यमंत्री ने राज्य में वादों और घोषणाओं की झड़ी लगा दीए लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या ये सारे वादे और घोषणाओं पर अमल करने और कराने का हमारे युवा मुख्यमंत्री का संकल्प है या चुनाव के मुहाने पर खड़े उत्तराखण्ड के मतदाताओं को रिझाने की कोशिश। 21 वें स्थापना दिवस की सालगिरह जिस जोश.खरोश के साथ मनाई गई इसमें जितनी ईमानदारी के रूप में एक विमर्शदाता की सरकार से उम्मीद की जा रही थी वह सियासी उठा.पटक और वोटों की सियासी महत्वाकांक्षा में धूमिल पडती नजर आई।
जिस तरह से अन्तर्रराष्ट्रीय स्तर पर उत्तराखण्ड आन्दोलन की चमक और लोगों की सहभागिता के साथ आन्दोलनकारियों की गरिमा थी जिसमें हर जाति और धर्म के लोगों का संघर्ष था तब कहीं जाकर उत्तराखण्ड अलग राज्य सृजित हुआए लेकिन आन्दोलनकारियों के सपनों का उत्तराखण्ड आज भी अपने आपको सजने संवरने और बिकास के पथ पर दौड़ने के लिए मोहताज है। इसमें सबसे बड़ा कारण दिशाहीन सरकारें थीं तो कहीं न कहीं इसके सुन्दर माडल का विकृत रूप के लिए यहां की आवाम भी कारक है । क्योंकि जहां पर सरकारें आवाम की नहीं सुनती तो सबसे बड़ी प्रदेश के विकास के लिए अपनी बात मनवाने में विपक्ष का भी बड़ा अहम किरदार होता है लेकिन उत्तराखण्ड का दुर्भाग्य है कि इस नव सृजित प्रदेश में विपक्ष किसी कमजोर मानसून की तरह रहता है जिसमें गरजने की क्षमता तो होती है लेकिन बरसने यानि विकास के पहिए दौड़ाने में दृढ़ निश्चय की कमी देखी गई। आवाम इस वजह से भी सबसे बड़ी दोषी है कि जब अपने शैशव काल में पल रहे प्रदेश के बारे में सोचने और सरकारों के कार्यों के आकलन का वक्त था तो यहां की आवाम कई गुटों में बंटकर अपनी.अपनी ढ़पली अपना.अपना राग वाली कहावत चरितार्थ कर गई सभी अपनी.अपनी मांगें सरकार के समक्ष रखने में लग गये लिहाजा सरकार और विपक्ष अच्छी तरह से अपने आवाम की मनोस्थिति को समझ चुकी थी कि इनका मकसद सिर्फ स्कूलएअस्पताल के साथ बेशुमार भवनों के निर्माण तक सीमित है न कि इनकी गुणवत्ता और इसके रखरखाव और बेहतर संचालन से इनका कोई लेना देना भी है। यहीं से सरकार और विपक्ष में बंदरबाट का खेल शुरू हो गया।
प्रदेश में बेशुमार सड़कें बन तो रहीं है लेकिन हर साल सड़के खत्म हो भी हो रहीं हे इस पर यहां की आवाम की कोई तवज्जों नहीं थी इसका मतलब साफ है कि विपक्ष शांत है तो करोड़ों रूपये के निर्माण कार्यों में कमीशनखोरी में लाभ पाने वाले भी सरकार और विपक्ष के ही हैं। सबसे बड़ा प्रश्न ये खड़ा हो उठता है कि ऐसे स्थापना दिवस को मनाना किसी रीत को कंधों पर ढ़ोना मात्र ही है जिसमें असफलताओं की कड़वाहट ज्यादा और उपलब्धियों की चासनी न के बराबर हो और प्रदेश की आवाम भी या विपक्षी दल सरकार की नाकामियों को अपने हित से हटकर आवाम के पक्ष में ईमानदारी के साथ प्रदेश के विकास का आंकलन करने का साहस न जुटा पाये हों। हमारे प्रदेश में साल दर साल हालात बदतर होते चले जा रहे हैं पलायन की समस्या का दर्द सरकार को नहीं है क्योंकि उनकी मंशा खुद मैदानी सीटें बनाने की दिख रही है अगर पलायन का दंश ऐसा ही उत्तराखण्ड झेलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब परिसीमन में पर्वतीय सीटों का नामो निशान न रहे । प्रदेश में चिकित्साएशिक्षाएरोजगार व्यवस्था 21 साल में भी ढर्रे पर नहीं आ पाईं ऐसे में यदि सत्तारूढ़ सरकार जमीनी मुदृदों को गौर नहीं करते या छिपा जाते हैं ये बात तो किसी हद तक ठीक है लेकिन विपक्ष नजर अन्दाज कर जाये तो ये प्रदेश के लिए चिन्ता का सबब है फिर ये बात तो आईने की तरह साफ है कि इन 21 वर्षों में को जबावदेही व्यवस्था नहीं बन पाई।
सबसे बड़ा मसला किसी उलझे रेशम की तरह उलझी गुत्थी है वो है प्रदेश की स्थायी राजधानी । उत्तराखण्ड में भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ही बारी.बारी से सत्ता का सिंहासन संभाला लेकिन दोनो ही पार्टियों के तौर तरीकों में कोई बदलाव नहीं आया इन बीते सालों में स्थाई राजधानी का मसला किसी यक्ष प्रश्न की तरह है आज उत्तराखण्ड प्रदेश वित्तिय कर्ज तले दबकर घुटी.घुटी सांसें ले रहा हा उस पर दो.दो राजधानियों का बोझ एक गैरसैंण शीतकालीन और देहरादून अस्थाई राजधानी उसे और गर्त की तरफ ले जा रहा है। अगर भावनाओं की कीमत को दांव पर न लगाया जाता और जमीनी हकीकत से सरकारों ने किनारा न किया होता तो यकीनन इन 21 सालों में इस प्रदेश को स्थाई राजधानी तो मिल ही जाती। दूसरा उत्तराखण्ड जैसे छोटे से प्रदेश में हमेशा से ही अफसरशाही हावी रही है जिसका खामिययाजा प्रदेश की जनता ने भुगता है लेकिन सत्तधारी दल के नेता इसमें भी मलाई चाट गये।
फिलहाल इस नव सृजित प्रदेश में जो होना चाहिए था वो हुआ नहीं एक बार तो जब उत्तराखण्ड को अलग प्रदेश बनाये जानेे की घोषण हुई तो यहां की आवाम को लगा कि उन्हें जो दर्द उत्तर प्रदेश में रहकर और उपेक्षा का दंश झेलकर सहना पड़ रहा था शायद अलग प्रदेश बनने के बाद उससे मुक्त हो जायें लेकिन अफसोस अलग होकर प्रदेश का नाम बदला लेकिन आज भी उत्तराखण्ड उत्तर प्रदेश का छोटा भाई या फिर कह लें कार्बन कापी या उसके पद चिन्हों पर चल रहा है। बहरहाल 21 साल बाद भी उत्तराखण्ड में आथर््िक स्थिति में न तो कोई सुधार हो पाया और न ही केन्द्र की मदद के बाद भी आद्यौगिक प्रगति ही परवान चढ़ पाई जो भी विकास हो रहा हैे केन्द्र की दया दृष्टि पर निर्भर है फिर 21 सालों में 11 मुख्यमंत्री का प्रदेश को तोहफा राजनीतिक अस्थिरता और नाकामी की कहानी बयां करता है। क्या आपको लगता हैे कि चुनावी साल में भाजपा के युवा मुख्यमंत्री ने प्रदेश की खुशहाली तरक्की के लिए जिस तरह से घोषणाओ के पिटारे का मुंह खोल दिया है लेकिन इसमें राजनीतिक महत्वाकांक्षा ज्यादा और दृढ़ संकंल्प की कमी साफ देखी गई वर्ना बहुमत में रहते हुये भी सरकार की नाकामी से आवाम ने कितना खोया कितना पाया ये तो उनके दिल से पूंछे कोई।