
(सलीम रज़ा)
‘सामाजिक समरसता’ शब्द दो प्रमुख तत्वों से मिलकर बना है – ‘समाज’ और ‘समरसता’। ‘समरसता’ का शाब्दिक अर्थ है – ‘रस में सम’ यानी सब कुछ एक समान भाव में रचा-बसा हुआ। जब समाज के सभी वर्ग, जाति, धर्म, लिंग, भाषा, और क्षेत्रीय भिन्नताओं के बावजूद एक दूसरे के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखते हैं, तो उस अवस्था को सामाजिक समरसता कहा जाता है।
यह समरसता न केवल सामाजिक शांति का प्रतीक है, बल्कि एक स्वस्थ लोकतंत्र की बुनियाद भी है। एक ऐसा समाज जहाँ कोई ऊँच-नीच, भेदभाव या असमानता न हो, सभी को समान अवसर और सम्मान मिले – वही समाज वास्तव में उन्नत कहलाता है।
भारतीय संस्कृति में सामाजिक समरसता की जड़ें
भारत विविधताओं का देश है – यहाँ विभिन्न जातियाँ, धर्म, भाषाएँ और संस्कृतियाँ सह-अस्तित्व में हैं। बावजूद इसके, हमारी सांस्कृतिक परंपरा हमेशा से समरसता और सहिष्णुता पर आधारित रही है। वेदों, उपनिषदों, बौद्ध और जैन धर्म में मानव मात्र को एक समान मानने की भावना पर बल दिया गया है।
“वसुधैव कुटुम्बकम्” का सिद्धांत – अर्थात “पूरा विश्व एक परिवार है” – भारतीय संस्कृति की समरसता की भावना को दर्शाता है। संत कबीर, गुरु नानक, महात्मा गांधी, डॉ. भीमराव अंबेडकर, स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरुषों ने समाज में समानता, बंधुत्व और सामाजिक न्याय के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।
सामाजिक समरसता में बाधाएँ: चुनौतियाँ और संघर्ष
यद्यपि सामाजिक समरसता एक आदर्श स्थिति है, परंतु इसके मार्ग में कई बाधाएँ भी हैं, जो हमारे समाज को भीतर से खोखला करती हैं। इनमें प्रमुख हैं:
● जातिवाद:
भारतीय समाज की सबसे बड़ी सामाजिक बीमारी जातिगत भेदभाव है, जो अब भी ग्रामीण क्षेत्रों से लेकर शहरी मानसिकताओं तक मौजूद है।
● धर्म के नाम पर भेदभाव:
धार्मिक असहिष्णुता, कट्टरवाद और संकीर्णता भी सामाजिक समरसता में अवरोध उत्पन्न करते हैं।
● आर्थिक विषमता:
गरीबी और अमीरी के बीच बढ़ती खाई समाज को दो हिस्सों में बाँटती है। सामाजिक न्याय तभी संभव है जब आर्थिक न्याय भी सुनिश्चित हो।
● लिंग भेद:
स्त्री और पुरुष के बीच समानता की कमी भी सामाजिक समरसता के मार्ग में एक बड़ी रुकावट है।
● शिक्षा की कमी:
शिक्षा के अभाव में लोग परंपराओं और अंधविश्वासों के आधार पर भेदभाव को सही मान लेते हैं, जिससे असमानता की भावना गहराती जाती है।
4. सामाजिक समरसता की स्थापना के लिए आवश्यक उपाय
सामाजिक समरसता को केवल विचारों तक सीमित नहीं रखा जा सकता। इसके लिए सक्रिय प्रयासों की आवश्यकता है:
● समान और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा:
हर वर्ग को समान शिक्षा देने से मानसिकता में बदलाव आएगा और सामाजिक पूर्वाग्रहों को मिटाया जा सकेगा।
● कानून और नीति निर्माण:
सरकार को चाहिए कि वह ऐसे कानून बनाए और लागू करे, जो भेदभाव के विरुद्ध कठोर कार्रवाई सुनिश्चित करें।
● सामाजिक जागरूकता अभियान:
समरसता के मूल्यों को जन-जन तक पहुँचाने के लिए मीडिया, शिक्षा प्रणाली, धर्मगुरुओं और सामाजिक संगठनों को मिलकर कार्य करना होगा।
● युवाओं की भूमिका:
युवा शक्ति यदि सामाजिक समरसता के लिए सक्रिय हो जाए, तो बदलाव निश्चित है। उन्हें डिजिटल माध्यमों से, सामाजिक कार्यों में भागीदारी से और जागरूकता फैलाकर बदलाव का वाहक बनना चाहिए।
● धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा:
हर धर्म में प्रेम, भाईचारे और मानवता की शिक्षा दी जाती है। धर्मों को जोड़ने की बजाय तोड़ने का माध्यम बनाना सामाजिक समरसता के विरुद्ध है।
5. निष्कर्ष: समरसता – एक सशक्त राष्ट्र की कुंजी
सामाजिक समरसता न केवल सामाजिक सद्भाव की पहचान है, बल्कि यह राष्ट्र निर्माण का आधार स्तंभ भी है। जब एक समाज के सभी लोग मिल-जुलकर, समान अधिकारों और कर्तव्यों के साथ आगे बढ़ते हैं, तो वहाँ प्रगति, शांति और सृजन की राह स्वतः प्रशस्त होती है।
आज के युग में, जब समाज तेजी से बदल रहा है, सामाजिक समरसता और अधिक आवश्यक हो गई है। यदि हम इस दिशा में सजग और संवेदनशील होकर कार्य करें, तो एक न्यायसंगत, संतुलित और प्रगतिशील समाज की स्थापना संभव है।
हमें याद रखना चाहिए:
“भिन्नता में एकता ही भारत की पहचान है और सामाजिक समरसता उस एकता की आत्मा।”